Sunday, March 21, 2010

चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो

कहीं पर यह कविता पढ़ी थी, बहुत अच्छी लगी. आपके पेशे-खिदमत है


चलता
हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो
जब टूटने लगते सपने सारे आशा का दीपक जलाती हो


चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो
मेरे प्राणों का अवलंबन बन दिवा-रात्रि मेरे संग होती हो


मेरे नयन लोक के विरह तुम में ज्योति बन जलती रहती हो
चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो


तुम बिन मेरा यह जीवन सूना सूने में रहता दुख दूना
लेते ही नाम तुम्हारा, प्रदीप्त हो उठता, उर का कोना-कोना


तुम नित विविध बंधन में बंधकर मेरे आंगन रहती हो
चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो


तुम जो मेरे संग न चलती प्रिये! मेरी पथ-प्रदर्शिका बन
तो जरा भी संशय नहीं कि मैं टूटकर बिखर गया होता


मिट जाता होकर कण-कण तुमने खुद को किया समर्पित
चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो।